Sunday, 6 October 2019





कांग्रेस : दो पाटन के बीच मे साबुत बचा न कोय!!


.....बात की शुरुआत बाबा कबीर के इस दोहे से करते हैं कि एक बार बाबा कबीर ने जीवन की आपाधापी पर लिखा था , "चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥"

ये बात इस के अलग के सन्दर्भ में रखें तो कुछ समय पहले लोकसभा चुनावों बाद एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा था कि दिसंबर तक कांग्रेस दो फाड़ में बंट जाएगी , तब उनका कहना शायद आज के वक़्त में भविष्यवाणी के हिसाब से सही लग रहा है। आज भारत की सबसे पुरातन पार्टी जिसने आज़ादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था , उसके अंदरखाने बहुत सड़ांध फ़ैल चुकी है , इसी लिए कहना पड़ रहा है दो पाटन के बीच में , कांग्रेस में सगा न कोय। 



बात यहाँ कांग्रेस की हो रही है तो बात शुरू करने के पहले एक जानकारी मिल रही है राहुल गाँधी हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव के ठीक पहले विदेश यात्रा पर निकल गए हैं , इन दोनों प्रदेशों के संगठन में आंतरिक कलह खुलकर सामने आ गयी हैं।


इस "कलह सीजन" की शुरुआत महाराष्ट्र चुनाव के दौरान से शुरू हुई , जब सबसे पहले महाराष्ट्र कांग्रेस में मजबूत स्तम्भ कृपाशंकर सिंह अपने को व्यथित महसूस करते हुए और अस्तित्व को बचाने के लिए पार्टी से अलग हुए ,सिंह के लिए कहा जाता है कि वे इंदिरा गांधी के कहने पर सक्रिय राजनीति में आये थे।कृपाशंकर सिंह 2004 की कांग्रेस सरकार में गृह राज्य मंत्री भी रह चुके थे।  इसके बाद जब टिकट बंट गया तब से  संजय निरुपम व्यथित हैं। इसी दौरान हरियाणा चुनाव में टिकट बंटवारे के पहले ही पार्टी में हाशिये  पर कर दिए गए पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और राहुल गाँधी के खेमे के माने जाने वाले अशोक तंवर ने आरोप लगाया कि टिकट बंटवारे में काफी धांधलियां हुईं हैं , उन्होंने कुमारी शैलजा और गुलाम नबी आज़ाद पर सीधा आरोप लगाया कि टिकट की "बिकवाली" हुई है , 5 करोड़ में टिकट बिके  हैं।  इसके बाद अशोक तंवर तो और भी आगे निकल गए , पार्टी की  सदस्य्ता से ही इस्तीफा दे दिया। अपने इस्तीफे के साथ तंवर ने सबसे बड़ा आरोप ये लगाया कि राहुल गांधी ने पिछले डेढ़ दशक में जिन नेताओं को आगे बढ़ाया उन्हें खत्म करने का षड्यंत्र किया जा रहा है, तंवर ने कहा कि राहुल गांधी के नजदीकी नेताओं की राजनीतिक हत्या की जा रही है, तंवर ने अपने साथ मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम, झारखंड कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अजय कुमार का जिक्र करते हुए कहा कि कुछ की राजनीतिक हत्या हो चुकी है कुछ की होने वाली है, तंवर ने गुलाम नबी आजाद पर 'गंदा खेल' खेलने का आरोप लगाते हुए कहा कि आजाद ने दी गई जिम्मेदारी का 'सौदा' कर लिया। 

दो दिनों पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान तंवर ने कहा था कि हरियाणा कांग्रेस 'हुड्डा कांग्रेस' बन गई है,हालांकि टिकट बेचे जाने के आरोप पर तंवर ने कहा कि लेनदेन की जानकारी उन्हें नहीं है लेकिन ऐसे आरोप कई नेताओं ने लगाए हैं।  लेकिन एक गंभीर और अहम खबर इस व्यथा और नाराजगियों से छनकर सामने आ रही है। कांग्रेस "दोफाड़” हो गयी है – राहुल और सोनिया कांग्रेस में। तो क्या राहुल को अब के सोनिया के नजदीकी बुजुर्ग लोगों (नेताओं) ने सिर्फ इसलिए "फेल" करने की कोशिश में रोल अदा किया, क्योंकि वे राहुल के रहते अप्रसांगिक होने की तरफ बढ़ रहे थे और युवा नेता कांग्रेस का नेतृत्व ओढ़ने की तैयारी कर रहे थे ! 
संजय निरुपम ने दो दिन पहले जिस प्रेस वार्ता में अपनी व्यथा बताई उस में उन्होंने एक बात कही कि " जो लोग वहां बैठे हुए हैं , सोनिया जी के इर्द गिर्द , वो बायस्ड लोग हैं , उनकी न तो कोई पकड़ है जनता के बीच , ना ही कोई समझ है, कैसे पार्टी में एक एक को निपटाया जाए ये षड़यत्र कर रहे हैं। "

यहां देखा जाये तो राहुल जब अपने अध्यक्षयीय कार्यकाल में थे तत्समय  राहुल के काम करने के तरीके पर नजर दौड़ाएं तो साफ़ होता है कि वे कांग्रेस को लोकतांत्रिक तरीके से पुनर्जीवित करने की कोशिश रहे थे। ज़मीन से जुड़े लोगों और आम कार्यकर्ता की सलाह को फैसलों में शामिल करने की राहुल की कोशिश एक खुला सच है। इसी तरह टिकट वितरण में भी वे कार्यकर्ता की सलाह को शामिल करने पर जोर दे रहे थे। बुजुर्ग हो रहे या हो चुके नेता इससे विचलित थे। उन्हें लग रहा था कि इससे तो पार्टी में उन्हें कोइ पूछेगा तक नहीं। उन्हें यह बिलकुल गवारा नहीं था।

अब महाराष्ट्र और हरियाणा प्रदेश की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है। जहां कांग्रेस पार्टी गुटबाजी में दो फाड़ हो गई है। एक ही पार्टी के कार्यकर्ता एक ही परिवार के दो अलग सदस्यों के लिए वफादारी दिखा रहे हैं। एक तरफ है सोनिया गांधी की ओल्ड कांग्रेस  तो दूसरी तरफ राहुल गांधी की न्यू कांग्रेस के कार्यकर्ता आमने सामने हैं, ऐसे में ये कहा जा सकता है की इस चुनाव का हश्र कांग्रेस का आलाकमान पहले ही जान रहा है , तभी तो भूपिंदर हुड्डा , गुलाम नबी आज़ाद और सोनिया के बेहद करीबी अहमद पटेल आपस में मंथन करते हुए हरियाणा में 14 सीट का हिसाब फिट कर रहे थे, मामला वायरल होने के बाद उनकी बोलती बंद थी।    


ये दिलचस्प बात है कि कांग्रेस की जो युवा ब्रिगेड आज राहुल गांधी के साथ है, इसे किसी और ने नहीं खुद सोनिया गांधी ने बनाया है पार्टी अध्यक्ष रहते। तब राहुल और यह सभी नेता काफी युवा थे। सोनिया ने इन्हें बेटों की तरह पार्टी के भीतर बहुत योजनाबद्ध तरीके से ताकत दी। लेकिन समय का फेर देखिये कि सोनिया के अध्यक्ष रहते हुए ही यह युवा नेता किनारे हो रहे हैं, इसका कारण है सोनिया गांधी का बुजुर्ग नेताओं पर ज़रुरत से ज्यादा निर्भर हो जाना। कांग्रेस की जैसी हालत है उसमें शायद यह उनकी मजबूरी भी है। अन्यथा सोनिया आज से दस-ग्यारह साल पहले अध्यक्ष के नाते जितनी ताकतवर थीं, उसमें इस तरह की संभावनाओं के लिए जगह ही नहीं थी।

खैर , यहां बहुत पुरानी अवधी कहावत याद आती है "धरा को प्रमाण यही तुलसी, जे फरा , सो झरा , जे बरा सो बुताना" , मतलब पेड़ में अगर फल जितनी तेज लगते हैं उतने ही तेज फल,पत्ती,फूल झड़ते भी हैं,जो आग जितनी तेज लगती है, उतने ही तेज बुझती भी है। सत्ता का दम्भ ऐसे ही होता है , इसलिए सत्ता को क्षणभंगुर माना जाना चाहिए, सोनिया गाँधी के खेमे के कांग्रेसी अभी भी सत्ता के उसी दिवास्वप्न में जी रहे हैं जो दस साल पहले थी , लेकिन सत्ता दस साल में कैसे छीनी गयी , उसे सीखना शायद भारतीय जनता पार्टी से भूल गए। ये सिर्फ गफलत है और इसी गफलत में कांग्रेस अभी भी जी रही है। 

अभिषेक द्विवेदी 
(पुरबिया बकैतबाज)

Friday, 4 October 2019


सत्ता के आगे विपक्ष का "संक्रमणकाल"...


उत्तर प्रदेश में जिस तरह की राजनीतिक  बयार  बह रही है, उसमे ये कहा जा सकता है कि सत्ता पक्ष फ्रंट फुट पर बैटिंग कर रहा है, विपक्ष के पास उस तेज बल्लेबाजी को रोकने के लिए न तो आरोपों की गुगली, न मुद्दों की स्पिन बॉलिंग, न ही उनके (सत्ता) के गलतियों की कैचिंग पॉवर है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य अगर देखें तो इस वक़्त सत्ता की कई सारी गलतियां ऐसी हैं ,जिनको लेकर विपक्ष उनको भुना सकता था,लेकिन कोई भी विपक्षी दल या नेता नही है जो उन मुद्दों को हवा देकर उसमे जान फूंक सके।

कल ही खत्म हुआ विधानसभा का विशेष सत्र इसकी एक बानगी था। जिस सदन में विपक्ष को जनहित के मुद्दों सवालों को उठाना था,उस सदन को उन्होंने बहिष्कृत कर दिया। उस सदन में अगर विपक्ष सत्ता पक्ष से महंगाई, पूर्वांचल में आई बाढ़ से तबाही और मौतें, लाचार कानून व्यवस्था, पुलिसिया उत्पीड़न , मोटर व्हीकल एक्ट के तहत होने वाली विसंगतियां और कठोर नियमों में पिस रही जनता की बातों के जायज़ सवाल पूछते तो सदन में उठा सवाल "ऑन रिकॉर्ड" होता ,और सत्ता को उसका जवाब देना भी पड़ता । लेकिन हुआ उसका बिल्कुल उलट, उस सदन का बहिष्कार करके विपक्ष सड़क पर छोटी सी भीड़ को इकट्ठा करके सरकार की मजबूत चूलें हिलाने की कोशिश में था, जो औंधे मुंह धड़ाम से गिरीं।

उत्तर प्रदेश में जिस समाजवादी पार्टी को सत्ता के मजबूत विपक्ष के रूप में देखा जा रहा था,वो समाजवादी पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है,हालिया बीते लोकसभा चुनाव में जहां उन्होंने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी बीएसपी से गठबंधन करके खुद के वोटबैंक में सेंध लगवा दी है,वो सेंध अब उसके नेतृत्व में लग गई है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव एक ऐसे कमजोर नेतृत्वकर्ता साबित हो रहे हैं जो अपने मुख्यमंत्रित्व काल और उस रुतबे से सत्ता जाने के लगभग ढाई साल बाद भी नही निकल पा रहे हैं। हां इस बीच उन्होंने लोकसभा चुनाव ने एक अजीब "केमेस्ट्री" का प्रयोग करने की कोशिश की जिसका "रिएक्शन" उनसे बड़ी कीमत ले गया। कहने की बात नही ये "प्रयोग" बिल्कुल "असंगत" और न्यायोचित नही था। उसका खामियाजा उन्हें अपना "कोर वोटर" खोकर भुगतना पड़ा। अभी भी अखिलेश यादव सोचते हैं कि सत्ता उन्हें "ट्वीट" करके ही मिलेगी,उन्हें ये सोचना चाहिए कि उनका "कोर वोटर" जो खलीलाबाद के किसी गांव गिरांव में,रसड़ा के किसी कछार में, दुद्धी या फूलपुर, सगड़ी के किसी मजरे में  किसानी करने वाला खेतिहर है। उसके लिए ट्वीट से ज्यादा उसके क्षेत्र में होने वाली जनसभा,रैली होती है , जो वो देखता है,सुनता है।

कांग्रेस में इस वक़्त अजब सी जल्दबाजी दिख रही है,प्रियंका गांधी जैसा उसका ब्रह्मास्त्र भी कुछ खास कारगर नही दिख रहा। इस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग उसने लोकसभा चुनाव के दौरान किया,लेकिन नतीजा उत्तर प्रदेश में मृतप्राय हो चुका कांग्रेस का संगठन,बूथ लेवल कार्यकर्ता इस संजीवनी से भी जिंदा नही हो पाया , लिहाजा उसकी परम्परागत अमेठी सीट हाथ से निकल गई, अब उस मुर्दा संगठन को जिंदा करने का जिम्मा प्रियंका गांधी वाड्रा ने उठाया है, ये समय के गर्भ में है वो कौन सा अचूक मंत्र होगा,जिसे प्रियंका अपने कार्यकर्ताओं को देंगी,क्योंकि लोकसभा चुनाव बीते 4 महीने हो चुके हैं, प्रदेश तो छोड़िए, जिला इकाई तक का गठन अभी तक नही हो पाया है। और अगले 20 दिन में विधानसभा की खाली हुईं 11 सीटों पर उपचुनाव है,हालांकि बुझे मन से ही सही कांग्रेस इस उपचुनाव में ताल ठोंक रही है। 

बहुजन समाज पार्टी का कुछ समय पहले गिरता हुआ ग्राफ कुछ उठता दिखाई पड़ रहा है,लेकिन बीएसपी आज भी अपने परम्परागत ढर्रे पर चल रही है, मुखिया मायावती को अब ये समझना चाहिए कि भाषण पढ़ने मात्र से जनता से जुड़ाव मुश्किल है, बदलते दौर में कम से कम मायावती ने ये सही समझा कि इस जुड़ाव के लिए "सोशल मीडिया" "ट्वीटबाजी" करना अनिवार्य है,लिहाजा उनका इस प्लेटफार्म पर आना कुछ हद तक समय के लिहाज से सही है,लेकिन जनता से जुड़ाव बहुत दूर की कौड़ी लगती है।

आने वाले उपचुनावों के लिए जिस तरह विपक्ष में धार होनी चाहिए वो दिखाई नही पड़ती,वहीं भारतीय जनता पार्टी इस "गेम" में सबसे आगे दौड़ती नजर आती है, राष्ट्रवाद का तड़का, हिंदुत्व की चाशनी, गाय,गोबर,गौमूत्र ,भ्रष्टाचार मुक्त समाज के जुमलों में अभी भी जनता का विश्वास नजर आता है, जिसके "दम्भ" में बीजेपी की सत्ता का आधार मजबूत दिखाई पड़ता है। लेकिन वही बीजेपी तब कमजोर दिखाई पड़ती है,जब नारी शक्ति और महिला सशक्तिकरण की बात करती है तो उसके दामन पर कुलदीप सिंह सेंगर,स्वामी चिन्मयानंद जैसे कुत्सित ,कुकृत्य एक दाग छोड़ जाते हैं, अगर यहां यही विपक्ष इन मुद्दों के प्रति "रणछोड़" साबित न हुआ होता, और उन मुद्दों को सदन में उछालता तो गेंद जरूर "हिटविकेट" होती। 

पुरबिया बकैतबाज.....