कांग्रेस : दो पाटन के बीच मे साबुत बचा न कोय!!
.....बात की शुरुआत बाबा कबीर के इस दोहे से करते हैं कि एक बार बाबा कबीर ने जीवन की आपाधापी पर लिखा था , "चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥"
ये बात इस के अलग के सन्दर्भ में रखें तो कुछ समय पहले लोकसभा चुनावों बाद एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा था कि दिसंबर तक कांग्रेस दो फाड़ में बंट जाएगी , तब उनका कहना शायद आज के वक़्त में भविष्यवाणी के हिसाब से सही लग रहा है। आज भारत की सबसे पुरातन पार्टी जिसने आज़ादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था , उसके अंदरखाने बहुत सड़ांध फ़ैल चुकी है , इसी लिए कहना पड़ रहा है दो पाटन के बीच में , कांग्रेस में सगा न कोय।

इस "कलह सीजन" की शुरुआत महाराष्ट्र चुनाव के दौरान से शुरू हुई , जब सबसे पहले महाराष्ट्र कांग्रेस में मजबूत स्तम्भ कृपाशंकर सिंह अपने को व्यथित महसूस करते हुए और अस्तित्व को बचाने के लिए पार्टी से अलग हुए ,सिंह के लिए कहा जाता है कि वे इंदिरा गांधी के कहने पर सक्रिय राजनीति में आये थे।कृपाशंकर सिंह 2004 की कांग्रेस सरकार में गृह राज्य मंत्री भी रह चुके थे। इसके बाद जब टिकट बंट गया तब से संजय निरुपम व्यथित हैं। इसी दौरान हरियाणा चुनाव में टिकट बंटवारे के पहले ही पार्टी में हाशिये पर कर दिए गए पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और राहुल गाँधी के खेमे के माने जाने वाले अशोक तंवर ने आरोप लगाया कि टिकट बंटवारे में काफी धांधलियां हुईं हैं , उन्होंने कुमारी शैलजा और गुलाम नबी आज़ाद पर सीधा आरोप लगाया कि टिकट की "बिकवाली" हुई है , 5 करोड़ में टिकट बिके हैं। इसके बाद अशोक तंवर तो और भी आगे निकल गए , पार्टी की सदस्य्ता से ही इस्तीफा दे दिया। अपने इस्तीफे के साथ तंवर ने सबसे बड़ा आरोप ये लगाया कि राहुल गांधी ने पिछले डेढ़ दशक में जिन नेताओं को आगे बढ़ाया उन्हें खत्म करने का षड्यंत्र किया जा रहा है, तंवर ने कहा कि राहुल गांधी के नजदीकी नेताओं की राजनीतिक हत्या की जा रही है, तंवर ने अपने साथ मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम, झारखंड कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अजय कुमार का जिक्र करते हुए कहा कि कुछ की राजनीतिक हत्या हो चुकी है कुछ की होने वाली है, तंवर ने गुलाम नबी आजाद पर 'गंदा खेल' खेलने का आरोप लगाते हुए कहा कि आजाद ने दी गई जिम्मेदारी का 'सौदा' कर लिया।
दो दिनों पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान तंवर ने कहा था कि हरियाणा कांग्रेस 'हुड्डा कांग्रेस' बन गई है,हालांकि टिकट बेचे जाने के आरोप पर तंवर ने कहा कि लेनदेन की जानकारी उन्हें नहीं है लेकिन ऐसे आरोप कई नेताओं ने लगाए हैं। लेकिन एक गंभीर और अहम खबर इस व्यथा और नाराजगियों से छनकर सामने आ रही है। कांग्रेस "दोफाड़” हो गयी है – राहुल और सोनिया कांग्रेस में। तो क्या राहुल को अब के सोनिया के नजदीकी बुजुर्ग लोगों (नेताओं) ने सिर्फ इसलिए "फेल" करने की कोशिश में रोल अदा किया, क्योंकि वे राहुल के रहते अप्रसांगिक होने की तरफ बढ़ रहे थे और युवा नेता कांग्रेस का नेतृत्व ओढ़ने की तैयारी कर रहे थे !
संजय निरुपम ने दो दिन पहले जिस प्रेस वार्ता में अपनी व्यथा बताई उस में उन्होंने एक बात कही कि " जो लोग वहां बैठे हुए हैं , सोनिया जी के इर्द गिर्द , वो बायस्ड लोग हैं , उनकी न तो कोई पकड़ है जनता के बीच , ना ही कोई समझ है, कैसे पार्टी में एक एक को निपटाया जाए ये षड़यत्र कर रहे हैं। "
यहां देखा जाये तो राहुल जब अपने अध्यक्षयीय कार्यकाल में थे तत्समय राहुल के काम करने के तरीके पर नजर दौड़ाएं तो साफ़ होता है कि वे कांग्रेस को लोकतांत्रिक तरीके से पुनर्जीवित करने की कोशिश रहे थे। ज़मीन से जुड़े लोगों और आम कार्यकर्ता की सलाह को फैसलों में शामिल करने की राहुल की कोशिश एक खुला सच है। इसी तरह टिकट वितरण में भी वे कार्यकर्ता की सलाह को शामिल करने पर जोर दे रहे थे। बुजुर्ग हो रहे या हो चुके नेता इससे विचलित थे। उन्हें लग रहा था कि इससे तो पार्टी में उन्हें कोइ पूछेगा तक नहीं। उन्हें यह बिलकुल गवारा नहीं था।
अब महाराष्ट्र और हरियाणा प्रदेश की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है। जहां कांग्रेस पार्टी गुटबाजी में दो फाड़ हो गई है। एक ही पार्टी के कार्यकर्ता एक ही परिवार के दो अलग सदस्यों के लिए वफादारी दिखा रहे हैं। एक तरफ है सोनिया गांधी की ओल्ड कांग्रेस तो दूसरी तरफ राहुल गांधी की न्यू कांग्रेस के कार्यकर्ता आमने सामने हैं, ऐसे में ये कहा जा सकता है की इस चुनाव का हश्र कांग्रेस का आलाकमान पहले ही जान रहा है , तभी तो भूपिंदर हुड्डा , गुलाम नबी आज़ाद और सोनिया के बेहद करीबी अहमद पटेल आपस में मंथन करते हुए हरियाणा में 14 सीट का हिसाब फिट कर रहे थे, मामला वायरल होने के बाद उनकी बोलती बंद थी।
ये दिलचस्प बात है कि कांग्रेस की जो युवा ब्रिगेड आज राहुल गांधी के साथ है, इसे किसी और ने नहीं खुद सोनिया गांधी ने बनाया है पार्टी अध्यक्ष रहते। तब राहुल और यह सभी नेता काफी युवा थे। सोनिया ने इन्हें बेटों की तरह पार्टी के भीतर बहुत योजनाबद्ध तरीके से ताकत दी। लेकिन समय का फेर देखिये कि सोनिया के अध्यक्ष रहते हुए ही यह युवा नेता किनारे हो रहे हैं, इसका कारण है सोनिया गांधी का बुजुर्ग नेताओं पर ज़रुरत से ज्यादा निर्भर हो जाना। कांग्रेस की जैसी हालत है उसमें शायद यह उनकी मजबूरी भी है। अन्यथा सोनिया आज से दस-ग्यारह साल पहले अध्यक्ष के नाते जितनी ताकतवर थीं, उसमें इस तरह की संभावनाओं के लिए जगह ही नहीं थी।
खैर , यहां बहुत पुरानी अवधी कहावत याद आती है "धरा को प्रमाण यही तुलसी, जे फरा , सो झरा , जे बरा सो बुताना" , मतलब पेड़ में अगर फल जितनी तेज लगते हैं उतने ही तेज फल,पत्ती,फूल झड़ते भी हैं,जो आग जितनी तेज लगती है, उतने ही तेज बुझती भी है। सत्ता का दम्भ ऐसे ही होता है , इसलिए सत्ता को क्षणभंगुर माना जाना चाहिए, सोनिया गाँधी के खेमे के कांग्रेसी अभी भी सत्ता के उसी दिवास्वप्न में जी रहे हैं जो दस साल पहले थी , लेकिन सत्ता दस साल में कैसे छीनी गयी , उसे सीखना शायद भारतीय जनता पार्टी से भूल गए। ये सिर्फ गफलत है और इसी गफलत में कांग्रेस अभी भी जी रही है।
अभिषेक द्विवेदी
(पुरबिया बकैतबाज)



